ग़ज़ल- भरी थी भीड़ जो मुझमें हटा रहा हूँ अब कि ख़ुद को ढूँढ़ के ख़ुद ही में ला रहा हूँ अब जो मुझमें तुम थे उसी को भुला रहा हूँ अब मैं ख़ुद को याद बहुत याद आ रहा हूँ अब बहुत ही शोर था उसका जो मेरे अंदर था ख़मोश करके उसे दूर जा रहा हूँ अब निकल गई है कोई शय जो मेरे अंदर थी उसी का ग़म है कि सबको रुला रहा हूँ अब वो दुनिया छोड़ चला जिसको मैं अखरता था इसी ख़ुशी का तो मातम मना रहा हूँ अब ये फ़न दिया है मुझे मयकशी ने बदले में चराग़ आँखों के अपनी जला रहा हूँ अब ग़ज़लकार-सैफुर्रहमान यूनुस 'सैफ़' समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल एप से ग़ज़लें पायें|
एक गाँव में एक युवक था जिसका नाम आदित्य था। उसका आदर्श चरित्र और ईमानदारी के कारण गाँववाले उसे पसंद करते थे। एक दिन, गाँव में एक रहस्यमय मुद्दा सामने आया।गाँव के प्रमुख ने सभी गाँववालों को सभी संबंधित विवाद को हल करने के लिए एक सभा बुलाई। वहां आदित्य भी मौजूद था। सभा में एक अजीब सी तनाव था, और रहस्यमय तरीके से गाँव के सभी लोग इसमें शामिल थे।विवाद की जड़ एक बड़े धनाढ्य व्यापारी के साथ थी, जिसने गाँववालों के साथ नैतिक अनैतिकता का आरोप लगाया था। सभी को इस आरोप के लिए चरित्रमान रखने का आदान-प्रदान करना था।आदित्य ने इस स्थिति को समझते हुए अपने आदर्शों के लिए खड़ा होने का निर्णय लिया और अपने साक्षात्कार के दौरान एक रहस्यमय तथ्य को उजागर किया।समझदारी और सटीकता से आदित्य ने सबूत प्रस्तुत किए और यह सिद्ध किया कि आरोप अनधिकृत था। सभी ने आदित्य की सामर्थ्यवर्धन की सराहना की और गाँव में नैतिकता और इमानदारी के महत्व को फिर से महसूस किया।इसके परिणामस्वरूप, गाँव में सब फिर से एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहने लगे और वहां की सामाजिक सजगता में सुधार हुआ। आदित्य की सच्चाई ने न केवल गाँववालों के
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